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संविधान की कसम खाई फिर… राम मंदिर में छिपा बड़ा सच!

अयोध्या में भव्य राम मंदिर का उद्घाटन 75वें गणतंत्र दिवस के ठीक बाद हुआ, और इस महा-घटना ने भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला, धर्मनिरपेक्षता, पर फिर से विचार करने का मौका दिया है। राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित इस समारोह में सरकारी तंत्र के व्यापक समावेश ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं कि आखिर भारत में धर्मनिरपेक्षता की स्थिति क्या है?

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1963 में डोनाल्ड स्मिथ के शोध ने जहां “निजी और सार्वजनिक जीवन दोनों का धर्मनिरपेक्षीकरण” होने की उम्मीद जताई थी, वहीं अब विपरीत तस्वीर दिखाई देती है। भारत सहित दुनिया के कई हिस्सों में “प्रचंड धार्मिक” लहर उठी है, जो समाजशास्त्रियों को भी हैरान कर रही है।

हालांकि भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र कहा जाता है, लेकिन संविधान निर्माण के दौरान ही “धर्मनिरपेक्ष” शब्द को जानबूझकर शामिल नहीं किया गया था। इसके बजाय, भारतीय धर्मनिरपेक्षता ने “सर्वधर्म समभाव” और “धर्मनिरपेक्षता” के बीच एक नाजुक संतुलन बनाए रखा है। जवाहरलाल नेहरू के शब्दों में, धर्मनिरपेक्षता किसी “विधर्मी” रुख को नहीं दर्शाती, बल्कि सभी धर्मों के सम्मान और स्वतंत्रता की गारंटी देती है।

राम मंदिर का उद्घाटन हमें भारतीय धर्मनिरपेक्षता की गहन पड़ताल के लिए आमंत्रित करता है। हमें राष्ट्र के शासन में धर्म और राज्य के रिश्ते को नए सिरे से समझने की ज़रूरत है। क्या यह घटना धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करती है, या फिर यह एक अलग ही अध्याय का आरंभ है? आने वाला समय ही बताएगा।

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